बुधवार, मई 02, 2012

प्राचीन ग्रंथों में कितनी सच्चाई है? : एक महत्वपूर्ण विचार


भगवद्गीता सुनकर मेरे मन कुछ विचार उत्पन्न हुवे हैं, जिनकी अभिव्यक्ति करने के लिए आपको एक-बार इसे सुनना चाहिए. मैं एक बात और स्पष्ट किये देता हूँ की भागवत गीता को एक धार्मिक ग्रन्थ समझकर कतई न सुना जाए... यह एक वैज्ञानिक दृष्टि की सोंच पर आधारित लेख लिखा गया है... और विशेष तौर पर  ये लेख वैज्ञानिक प्रकृति के लोगों के लिए है... और कृपया करके लेख के हर शब्द को ध्यान से पढ़ें... (अगर इस लेख से किसी की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचे तो उसके लिए माफ कीजियेगा, यह सब बस मेरे विचार हैं.)

एक बार भगवद्गीता को सुनिए. और सुनते समय ये मत सोंचिये कि ये किसी भगवान के द्वारा कही गयी बातें हैं और न ही ये सोंचिये कि ये महेज एक ढोंग है. सिर्फ ये सोंच कर सुनिए कि जब विज्ञान आज कि तरह विकसित नहीं था, तब उस समय के बुद्धिजीवियों की इस ब्रह्माण्ड के बारे में क्या अवधारणायें थी. वैसे भी ये भगवद्गीता किसी भगवान के द्वारा लिखी हुई हो भी नहीं सकती! ये तो सिर्फ भूतकाल के बुद्धिजीवियों की कल्पनाएँ मात्र हो सकती हैं.

परन्तु इसे सुनना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि पृथ्वी पर मानव को आये सैकड़ों वर्ष ही नहीं बल्कि कई हज़ार वर्ष हो चुके हैं, और चूंकि अरस्तु ने कहा भी था कि मनुष्य स्वभावतः जिज्ञासु है और मनुष्य की सबसे बड़ी इच्छा स्रष्टि के स्वरुप की व्याख्या करना है. तो क्या ऐसा जिज्ञासु पन केवल आज के मनुष्यों में ही पाया जाता है? क्या भूतकाल के मनुष्य जिज्ञासु नहीं होंगे?

और अगर वे जिज्ञासु होंगे तो साधारण सी बात है कि उन्होंने अपनी जिज्ञासा को बुझाने का प्रयास किया होगा और चूंकि ये कई हजारों वर्षों कि बात है, तो ये भी संभव है कि वे भी किसी न किसी निष्कर्ष तक तो पहुंचे ही होंगे! आखिर जैसे हम आज के मनुष्य हैं वैसे ही वो भी तो मनुष्य ही होंगे न! जो आज हम महसूस करते हैं वही तो वो भी महसूस करते होंगे न!
फिर उनमे और हममे अंतर कैसा? ऐसी क्या खास बात है इन हाल ही के दो सौ वर्षों में? कि जो कुछ निष्कर्ष इन दो सौ वर्षों के अंतराल में उन्ही मनुष्यों के द्वारा निकले गए हैं उन्हें हम सही मानते हैं और जो निष्कर्ष कई हज़ार साल पहले के मनुष्यों के और कई हज़ार वर्षों के विचार के बाद निकाले गए हैं उनपर विश्वास नहीं करते?

शायद इसका कारण ये हो सकता है प्राचीन बुद्धिजीवी मनुष्य अपने द्वारा खोजी हुई हर बातो को भगवान से जोड़ देते थे ताकि लोग उनकी बातो का विश्वास करें (अब उनकी हर बात को भगवान से जोड़ने का कोई मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकता है) कारण कुछ भी हो पर जब उन्हें अपनी बाते भगवान से जोड़नी पड़ेंगी तो उन्हें कल्पना का सहारा भी लेना पड़ता होगा. जिससे सारी मिली जुली बाते बनानी पड़ती होंगी, ताकि वो सब बिलकुल सच लगे. और शायद यही सब मिली जुली बातें वेद-पुराणों और अन्य प्राचीन ग्रंथो में लिखी होंगी जिन्हें तब से लेकर आज तक के साधारण मनुष्य सच मानते आ रहे हैं. और इसी कल्पना के कारण तब से लेकर आज तक के तर्कशील बुद्धिजीवी मनुष्य (वैज्ञानिक) उन प्राचीन ग्रंथो को पूरी तरह से गलत मानते आ रहे है. जबकि इसके विपरीत कुछ ज्यादा ही धार्मिक और अंधविश्वासी मनुष्यों ने, जिन्हें आज हम पंडित कहते हैं, इन प्राचीन ग्रंथो को धर्म ग्रंथो से जोड़ते हुवे इसकी एक-एक बात पर विश्वास कर लिया है, जिससे आज के समय में इन दोनों ही तरह लोग विरोधी हो गए हैं.

जबकि हमारा विचार है कि हमे अन्धविश्वास न करते हुवे इन ग्रंथो कि बातो को सुनना चाहिए और अपने विवेक का सहारा लेकर कोई निष्कर्ष निकलना चाहिए.
हमारे कहने का मतलब ये है किसी आधुनिक बुद्धिजीवी को, जो कि किसी भी धार्मिक भावना से न जुड़ा हो, इन प्राचीन ग्रंथो को पढ़ना और समझना चाहिए. हमें लगता है, कि प्राचीन मनुष्यों ने भी अपनी जिज्ञासाओ को शांत करने के लिए,कुछ न कुछ खोजें और आविष्कार तो किये ही होंगे, ऐसा तो हो नहीं सकता कि प्राचीन बुद्धिजीवी मनुष्य सिर्फ भगवान कि कल्पना करके काल्पनिक ग्रन्थ ही लिखा करते थे. जैसे आज कुछ मनुष्य धार्मिक प्रकृति के होते हैं और कुछ मनुष्य वैज्ञानिक प्रकृति के, उसी तरह पहले के मनुष्य भी तो होंगे न!

उन्होंने जो विचार इस ब्रह्माण्ड को समझने के लिए दिए होंगे, वो शायद आज हमारे काम आ सकते हैं. हजारो वर्षों कि सोंच के बाद उन्होंने भी ब्रह्माण्ड के कुछ या शायद सभी रहस्यों को सुलझा लिया हो! और हम उनके द्वारा खोजे गए रहस्यों को आज वेद-पुरानो के माध्यम से ही समझ सकते हैं. क्यूंकि और कोई प्राचीन पुस्तक तो दिखाई नहीं पड़ती.

वेद पुरानो को समझने के लिए हमे उसमे से कल्पनाये हटानी पड़ेंगी, उनकी वास्तविक बातो को समझना पड़ेगा जो कि वो ग्रन्थ कहना चाह रहे हों. क्यूंकि कुछ चीजे होती हैं जो बहार से कुछ और ही दिखती हैं जबकि अगर उनकी गहराई में जाया जाये तो बिलकुल अलग बाते ही सामने आती हैं.
हमने भगवद्गीता को जब सुना तो तो उसमें कुछ अलग ही बाते हमारी समझ में आ रही हैं. हमने अभी उसका सिर्फ पहला अध्याय ही सुना है, और उसे ही सुनकर हमारे मन में जो विचार प्राचीन सभ्यता के लिए आया है, वो ही आपको बता रहे हैं. एक बार फिर से कह रहे हैं कि भगवद्गीता को आप सिर्फ एक प्राचीन विचार समझकर सुनिए. जब दो-तीन बार सुनेंगे तो आपके मन में भी ब्रह्माण्ड को समझने के लिए कुछ विचार आने लगेंगे.

here is the link to download mp3 of Full Bhagwad Geeta in Hindi Language- Click Here 

इन भगवानो को न मानने का एक और भी तर्क हो सकता है, वो ये है कि किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में पार-ग्रहों में रहने वाले जीवों आदि का कोई वर्णन नहीं है! (अगर है तो हमने आज-तक नहीं पढ़ा) ब्रह्माण्ड इतना बड़ा है जिसमें अरबों आकाश गंगाएं हैं, और हर आकाश गंगा में अरबों तारे हैं. और लगभग हर तारे के पास ग्रह हैं. इनमें से अरबो ग्रह ऐसे भी हैं जिनमें जीवन कि सम्भावना हो सकती है.
तो इतने विशाल ब्रह्माण्ड में में सिर्फ पृथ्वी पर ही जीवन हो! ये बात कुछ समझ में नहीं आती. और वो भगवान जिन्होंने इस पूरे ब्रह्माण्ड को बनाया है, वो पृथ्वी में जन्म लें! जे सब बाते कुछ गले से नहीं उतरती!
वेद-पुराणों में किसी अन्य सभ्यता, अन्य ग्रह का कोई भी वर्णन नहीं है. इसका अर्थ है कि किसी अन्य ग्रह में जीवन नहीं है और अगर किसी अन्य ग्रह में जीवन नहीं है तो भगवान नें अन्य ग्रह, तारे, आकाशगंगाएं बनायीं ही क्यूँ ?


-अनमोल साहू