सोमवार, अक्तूबर 01, 2012

स्टीफन हॉकिंग का व्याख्यान ‘ओरिजिन आफ यूनिवर्स’


प्रो. स्टीफन हॉकिंग के मशहूर व्याख्यान ‘ओरिजिन आफ यूनिवर्स’ का पूर्ण अनुवाद। प्रो. हॉकिंग ने 13 मार्च 2007 में यूनिवर्सिटी आफ कैलीफोर्निया, बर्कले में छात्रों को संबोधित करते हुए ये मशहूर व्याख्यान दिया था, जो बाद में उनकी एक किताब का आधार भी बना।
हम यहां क्यों हैं ? हम कहां से आए हैं ? सेंट्रल अफ्रीका के बोशोंगो लोगों के मुताबिक, मानव जाति के आगमन से पहले दुनिया में केवल तीन चीजें थीं, गहरा अंधेरा, पानी और महान देवता बुंबा। एक दिन बुंबा के पेट में तेज दर्द उठा जिससे उन्हें उल्टी हुई। इस उल्टी के साथ सूरज बाहर निकल पड़ा। सूरज की तेज गर्मी से कुछ पानी सूख गया, जिससे जमीन सामने आई। लेकिन पेट से सूरज के निकलने के बावजूद बुंबा की तबीयत ठीक नहीं हुई और एक के बाद उल्टियों के साथ उनके मुंह से चंद्रमा, सितारे और उसके बाद तेंदुए, मगरमच्छ, कछुए और अंत में मानव निकल पड़े।
सृष्टि और जीवन की शुरुआत को लेकर अलग-अलग संस्कृतियों में प्रचलित मिथकों में से ये भी एक मिथ है। लेकिन ये सभी मिथक ऐसे बहुत से सवालों से जूझते रहे हैं, जिनके जवाब तलाशने की कोशिश हम अब भी कर रहे हैं। अब जाकर हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इन मूलभूत सवालों के जवाब पौराणिक संदर्भों में नहीं बल्कि साइंस में छिपे हैं। अपने अस्तित्व से जुड़े रहस्यों की बात करें तो इसके पहले वैज्ञानिक साक्ष्य की खोज करीब 92 साल पहले की गई थी, जब 1920 में एडविन हब्बल ने लॉस एंजिल्स काउंटी में मौजूद माउंट विल्सन ऑब्जरवेटरी के 100 इंच टेलिस्कोप से अपने मशहूर ऑब्जरवेशंस की शुरुआत की थी। आकाशगंगाओं से आ रही रोशनी को माप कर हब्बल उनकी गति की गणना कर सके। उन्होंने देखा कि कुछ आकाशगंगाएं हमारे पास आ रही हैं, जबकि कुछ हमसे दूर छिटकती चली जा रही हैं। हब्बल ये देखकर आश्चर्य से भर उठे थे कि करीब सभी आकाशगंगाएं गतिशील हैं। उन्होंने देखा कि ज्यादा फासले वाली आकाशगंगाएं ज्यादा तेज गति से दूर भाग रही हैं। गतिशील और लगातार फैलते जा रहे ब्रह्मांड की खोज 20वीं सदी की सबसे महान खोज है। इस खोज ने ब्रह्मांड के बारे में सदियों से जारी बहस की दिशा ही मोड़ दी। लोग अब ये सोंचने पर मजबूर हो गए कि क्या ब्रह्मांड की कोई शुरुआत भी थी? अगर आकाशगंगाएं आज दूर भाग रही हैं, तो शायद कल वो एक-दूसरे के करीब थीं। अगर उनकी गति स्थिर थी, तो अलमारी में तहाकर रखे गए कपड़ों की तरह, अरबों साल पहले उन्हें एक-दूसरे के ऊपर होना चाहिए था। क्या ब्रह्मांड की शुरुआत इसी तरह से हुई ?
ब्रह्मांड की शुरुआत का विचार लोगों को कभी ठीक नहीं लगा। उदाहरण को तौर पर मशहूर यूनानी दार्शनिक अरस्तु को यकीन था कि ब्रह्मांड का अस्तित्व शाश्वत है। अमरता का विचार हमेशा से लोगों को कहीं ज्यादा विश्वसनीय लगता है, बजाय इसके कि किसी चीज का निर्माण हुआ। निर्माण या शुरुआत का विचार इसलिए भी अखरता था क्योंकि उस वक्त लोग इसकी तुलना बाढ़ या दूसरी प्राकृतिक आपदाओं से बर्बाद होते शहरों और फिर से उनके पुनर्निर्माण से करते थे। यानि अगर ब्रह्मांड की शुरुआत हुई है, तो इसका मतलब ये भी हुआ कि इससे पहले उसका खात्मा हो चुका था। शाश्वत ब्रह्मांड में यकीन की वजह धार्मिक भी थी, कोई इस विश्वास को तोड़ना नहीं चाहता था कि एक सर्वशक्तिमान बाहरी एजेंसी ‘ईश्वर’ ने ब्रह्मांड को उत्पन्न किया और इसे वर्तमान शक्ल बक्श दी।
अब अगर आप कहें कि ब्रह्मांड की शुरुआत हुई थी, तो तुरंत ये सवाल उठेगा कि उस शुरुआत से पहले क्या हुआ था ? मैं पूछना चाहूंगा कि इस ब्रह्मांड को रचने से पहले ईश्वर क्या कर रहा था? क्या वो ऐसे सवाल पूछने वाले लोगों के लिए नर्क तैयार करने में व्यस्त था ? ब्रह्मांड की शुरुआत हुई या नहीं जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट के लिए ये बहुत बड़ा सवाल था। उनका मानना था कि दोनों ही मान्यताओं में कई तार्किक अंतरविरोध मौजूद हैं। अगर मान लें कि ब्रह्मांड की शुरुआत हुई थी, तो फिर उसने शुरुआत के लिए अनंत काल तक इंतजार क्यों किया ? कांट ने इसे ‘थेसिस’ का नाम दिया। दूसरी तरफ, अगर ब्रह्मांड का वजूद शाश्वत काल से है, तो फिर वर्तमान स्थिति तक आने के लिए इसने अनंत समय क्यों लिया? कांट ने इस विचार को ‘एंटीथेसिस’ कहा। ‘थेसिस’ और ‘एंटीथेसिस’ दोनों ही कांट की परिकल्पनाएं थीं, जैसा कि उस वक्त के और भी लोगों का मानना था कि समय निरपेक्ष और अपरिवर्तनशील है। यानि समय अनंत भूतकाल से होते हुए अनंत भविष्य की ओर बढ़ा चला जा रहा है। लोगों का मानना था कि समय इससे अप्रभावित है कि उसकी पृष्ठभूमि में किसी ब्रह्मांड का अस्तित्व है या नहीं।
समय की निरपेक्ष तस्वीर अब भी कई वैज्ञानिकों को लुभाती है। 1915 में आइंस्टीन ने जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी’ का क्रांतिकारी सिद्धांत पेश किया। इसके बाद स्पेस और टाइम किसी घटना के लिए स्थिर बैकग्राउंड जैसे अपरिवर्तनशील और निरपेक्ष नहीं रह गए। इसके बजाय वो बेहद प्रभावशाली मात्राएं बन गईं ब्रह्मांड में जिनकी रूपरेखा पदार्थ और ऊर्जा से तय होती है। स्पेस और टाइम की व्याख्या केवल ब्रह्मांड के भीतर ही मुमकिन है, इसलिए ब्रह्मांड के जन्म से पहले टाइम की बात करना बिल्कुल बेमानी हो गया।
उस वक्त, ब्रह्मांड की शुरुआत के विचार से बहुत से वैज्ञानिक खुश नहीं थे, क्योंकि लग रहा था कि फिजिक्स के नियम ढह जाएंगे। अब समाधान के लिए बाहरी एजेंसी की मदद की जरूरत महसूस होने लगी, जिसे आप सुविधा के लिए ‘ईश्वर’ पुकार सकते हैं। अब तो बस ये ईश्वर’ ही बता सकता था कि ब्रह्मांड की शुरुआत कैसे हुई ? ब्रह्मांड की शुरुआत की कल्पना भी उन दिनों बेहद मुश्किल थी, लेकिन हब्बल के नतीजे झुठलाए नहीं जा सकते थे। इसलिए कुछ ऐसे तर्क गढ़े गए कि ठीक है वर्तमान में ब्रह्मांड फैल रहा है, लेकिन इसकी शुरुआत कभी नहीं हुई। इस सिलसिले में सबसे मजबूत तर्क 1948 में ‘स्टडी स्टेट थ्योरी’ के नाम से सामने आया। ‘स्टडी स्टेट थ्योरी’ के मुताबिक ब्रह्मांड हमेशा से था और हमेशा ऐसा ही नजर आता रहेगा। लेकिन इस थ्योरी का परीक्षण नहीं किया जा सकता था, इसलिए ये अवैज्ञानिक बात ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सकी।
ब्रह्मांड की शुरुआत हुई थी, इस सिद्धांत को खारिज करने के लिए एक और जबरदस्त कोशिश की गई। एक सुझाव ये रखा गया कि ब्रह्मांड का एक शुरुआती संकुचन काल भी था। लेकिन लगातार घूर्णन और कुछ दूसरी असमानताओं के कारण सारा पदार्थ एक ही जगह इकट्ठा नहीं रह सका, बल्कि पदार्थ के अलग-अलग हिस्से हो गए और अनंत घनत्व के साथ ब्रह्मांड का विस्तार एक बार फिर होगा। दरअसल ये दावा दो रूसी वैज्ञानिकों लिफशिट्ज और ख्लातनिकोव का था, कि उन्होंने साबित कर दिया है कि असमानताओं के साथ होने वाला असंतुलित संकुचन, घनत्व को अपरिवर्तित रखते हुए हमेशा एक उछाल की ओर ले जाएगा। मार्क्सवादी-लेनिनवादी तार्किक भौतिकवाद के लिए ये नतीजे काफी सुविधाजनक थे, क्योंकि इनसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में असुविधाजनक सवाल टाले जा सकते थे। इसलिए ये तर्क सोवियत वैज्ञानिकों के लिए ‘आर्टिकिल आफ फेथ’ बन गया।
लिफशिट्ज और ख्लातनिकोव ने जब अपना ये दावा प्रकाशित कराया, उस वक्त मैं महज 21 वर्षीय शोध छात्र था और अपनी पीएचडी थीसिस पूरी करने के लिए ‘कुछ’ तलाश कर रहा था। उनके तथाकथित सबूत पर मैंने विश्वास नहीं किया और रोजर पेनरोज के साथ मिलकर इस सवाल का अध्ययन करने के लिए गणित के एक नए समीकरण को विकसित करने में जुट गया। हमने साबित कर दिखाया कि ब्रह्मांड किसी गेंद की तरह उछल नहीं सकता, जैसा कि रूसियों को यकीन था। रोजर पेनरोज के साथ मैंने ये दिखाया कि अगर आइंस्टीन की जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी सही है, तो एक सिंगुलैरिटी की स्थिति भी होनी चाहिए, यानि अनंत घनत्व और स्पेस-टाइम कर्वेचर वाला एक ऐसा बिंदु, जहां से समय की शुरुआत होती है।
एक बेहद सघन शुरुआत के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ, हमारे इस विचार के पक्ष में सबसे ठोस ऑब्जर्वेशन सबूत मेरे पहले सिंगुलैरिटी नतीजों के कुछ महीने बाद, अक्टूबर 1965 में सामने आए। जब हमने पूरे अंतरिक्ष में माइक्रोवेव बैकग्राउंड के धुंधले से अवशेष ढूंढ़ निकाले। ये माइक्रोवेव बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी कि आपकी रसोई में रखे माइक्रोवेव ओवन में होती है, लेकिन ये ओवन जैसी शक्तिशाली नहीं बल्कि काफी कमजोर थी। ब्रह्मांड की इस माइक्रोवेव से आपका पिज्जा बस शून्य से 271 दशमलव 3 डिग्री सेंटीग्रेड तक ही गर्म हो सकता है। अंतरिक्ष की इस माइक्रोवेव में पिज्जा पकाने के बारे में सोंचना बेकार है। दरअसल, अंतरिक्ष की इस माइक्रोवेव को आप खुद भी देख सकते हैं, अपने टीवी को किसी खाली चैनल पर सेट कर दीजिए, अब स्क्रीन पर आप जो ‘स्नो’ जैसी चीज देखेंगे उसमें कुछ फीसदी हिस्सेदारी इस माइक्रोवेव की भी है। अंतरिक्ष के बैकग्राउंड में ये माइक्रोवेव रेडिएशन कहां से आया? इसका बस एक ही जवाब था कि ये रेडिएशन शुरुआती बेहद गर्म और सघन स्थिति का ही अवशेष है। जैसे-जैसे ब्रह्मांड का विस्तार होता गया, रेडिएशन ठंडा होता चला गया और अब ये अवशेष के रूप में मौजूद है।
हालांकि पेनरोज और मेरी बनाई सिंगुलैरिटी थ्योरम्स, ये बताती थीं कि ब्रह्मांड की एक शुरुआत भी थी, लेकिन हमारी ये थ्योरम ये नहीं बताती थी कि इसकी शुरुआत आखिर हुई कैसे? सिंगुलैरिटी प्वाइंट पर जनरल रिलेटिविटी के समीकरण ढह जाएंगे, इसलिए आइंस्टीन की थ्योरी ये नहीं बता सकती कि ब्रह्मांड की शुरुआत कैसे हुई? बल्कि, ये केवल ये बता सकती है कि एक बार शुरुआत हो जाने के बाद ब्रह्मांड किस तरह लगातार विकसित होता गया। अब लोगों के सामने दो रास्ते थे, पहला रास्ता उस तार्किक नतीजे की ओर ले जाता था जिसे पेनरोज और मैंने खोजा था। और दूसरा रास्ता सर्वशक्तिमान ईश्वर की ओर जाता था, कि उसने इस ब्रह्मांड की रचना कुछ ऐसे उद्देश्यों के लिए की जिसे हम मानव नहीं समझ सकते। ये नजरिया पोप जॉन पॉल का था।
वैटिकन में कॉस्मोलॉजी के एक कान्फ्रेंस में पोप ने प्रतिभागियों से कहा कि शुरुआत के बाद ब्रह्मांड का अध्ययन करना ठीक है, लेकिन ब्रह्मांड की शुरुआत के बारे में जांच-पड़ताल नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि ये सृष्टि की रचना का पल था, ये सर्वशक्तिमान ईंश्वर का विधान था, जो उस पल काम कर रहा था। मुझे खुशी है, कि वो नहीं समझ सके कि उसी कांफ्रेंस में मैंने एक पेपर प्रजेंट किया था, जिसमें मैंने बताया था कि इस ब्रह्मांड की शुरुआत कैसे हुई। शुक्र है कि गैलीलियो की तरह मुझे धार्मिक न्यायाधिकरण के सामने पेश होकर कार्यवाही का सामना नहीं करना पड़ा।
हमारे काम की एक और व्याख्या, जिसका समर्थन ज्यादातर वैज्ञानिकों ने किया है, वो ये है कि ब्रह्मांड के शुरुआती स्वरूप में मौजूद बेहद शक्तिशाली गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की वजह से जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी ढह गई थी। उस पल, एक ऐसी थ्योरी ने इसकी जगह ले ली थी जो कहीं ज्यादा पूर्ण थी। आपको ये स्वाभाविक भी लग सकता है, क्योंकि जनरल रिलेटिविटी पदार्थ की सूक्ष्म संरचनाओं पर ध्यान ही नहीं देती। वहां क्वांटम थ्योरी का बोलबाला है। सामान्यतौर पर इसका कुछ खास मतलब नहीं है, क्योंकि माइक्रोस्कोपिक स्तर पर काम करने वाली क्वांटम थ्योरी के मुकाबले ब्रह्मांड का आकार अतुलनीय विस्तार वाला है। लेकिन जबकि ब्रह्मांड एक सेंटीमीटर के अरबों-खरबों गुना प्लांक आकार के विस्तार वाला है, यहां दोनों स्केल एकसमान हो जाते हैं और क्वांटम थ्योरी प्रभाव में आ जाती है।
ब्रह्मांड के उदभव को समझने के लिए हमें जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी को क्वांटम थ्योरी के साथ मिलाने की जरूरत है। ‘सम ओवर हिस्टिरीज’ का फेनमैन का आइडिया, ऐसा करने का सबसे बढ़िया तरीका नजर आता है। रिचर्ड फेनमैन विविधताओं से भरे काफी रंगीले इंसान थे। वो पैसाडीना के एक स्ट्रिप ज्वाइंट में बोंगो ड्रम्स भी बजाते थे और कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी में ब्रिलियंट फिजिसिस्ट भी थे। उन्होंने बताया कि कोई सिस्टम स्थिति A से स्थिति B तक जाने में हर मुमकिन रास्ते या ‘हिस्ट्री’ की मदद लेता है।
आइंस्टीन की जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी ने टाइम और स्पेस को स्पेस-टाइम के रूप में एकसाथ जोड़ दिया। लेकिन टाइम स्पेस से अलग है, ये एक गलियारे के जैसा है, जिसकी या तो एक शुरुआत होती है और एक अंत, या फिर वो हमेशा के लिए गतिमान रहता है। बहरहाल, जब कोई जनरल रिलेटिविटी को क्वांटम थ्योरी के साथ मिलाता है, जैसा कि जिम हर्टल और मैंने किया, तो हमने देखा कि चरम स्थितियों में टाइम, स्पेस में एक दूसरी दिशा की तरह बर्ताव करने लगता है।
मैंने और जिम हर्टल ने ब्रह्मांड की रचना खुद--खुद और सूक्ष्म स्तर से (the spontaneous quantum creation of the universe) होने की जो तस्वीर विकसित की है, वो काफी हद तक खौलते पानी की ऊपरी सतह पर बनते-बिगड़ते भाप के बुलबुलों जैसी है। खौलते पानी की सतह को ध्यान से देखिए, वहां भाप के कई सारे छोटे-बड़े बुलबुले बनते-बिगड़ते नजर आएंगे। छोटे बुलबुले अगले ही पल खत्म हो जाते हैं, जबकि कुछ बड़े बुलबुले लंबे समय तक खुद को बचा ले जाते हैं। आइडिया ये है कि ब्रह्मांड की सबसे संभावित ‘हिस्ट्रीज’ इन बुलबुलों के सतह के जैसी होगी। बहुत से छोटे बुलबुले बनेंगे, लेकिन वो अगले ही पल गायब भी हो जाएंगे। इन्होंने एक सूक्ष्म ब्रह्मांड को विस्तार देने में योगदान तो दिया, लेकिन फिर से खत्म भी हो गए, क्योंकि इनका आकार बेहद छोटा था। इन्हें संभावित वैकल्पिक ब्रह्मांड कहा जा सकता है, लेकिन ये कोई खास महत्व के नहीं थे, क्योंकि ये उतनी देर तक अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सके ताकि आकाशगंगाओं, सितारों और किसी बुद्धिमान सभ्यता को जन्म दे सकें। इन नन्हें बुलबुलों में से कुछ ने अपना आकार इतना बढ़ा लिया कि वो फिर से फूट जाने से खुद को बचा सकें। लगातार बढ़ती रफ्तार के साथ इन बुलबुलों का फैलना जारी है, हमारा ब्रह्मांड भी ऐसा ही एक बुलबुला है, जिसमें हम रह रहे हैं।
पिछले सौ साल में कॉस्मोलॉजी ने बहुत शानदार विकास किया है। जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी और ब्राह्मांड के लगातार फैलने की खोज ने ब्रह्मांड की अनादि और अनंत वाली पुरानी तस्वीर उखाड़ फेंकी है। जनरल रिलेटिविटी तो कहती है कि ब्रह्मांड और खुद समय की शुरुआत भी बिगबैंग में हुई थी। इसका एक आंकलन ये भी है कि ब्लैकहोल्स में खुद समय का भी खात्मा हो जाएगा। कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड और ब्लैक होल्स के ऑब्जरवेशंस से इन गणनाओं की पुष्टि हुई है। ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ और खुद वास्तविकता को समझने में ये बहुत बड़ा योगदान है।
हालांकि जनरल थ्योरी आफ रिलेटिविटी का आंकलन है कि भूतकाल में पीरियड आफ हाई करवेचर से ब्रह्मांड आया होगा। लेकिन ये नहीं बताती कि ब्रह्मांड बिगबैंग से उत्पन्न कैसे हुआ? इसलिए जनरल रिलेटिविटी अपने आप में कॉस्मोलॉजी के इस केंद्रीय सवाल का जवाब नहीं दे सकती कि ब्रह्मांड जैसा दिखता है, वैसा क्यों है? लेकिन अगर जनरल रिलेटिविटी को क्वांटम थ्योरी के साथ मिला दिया जाए, तो ये बताना संभव है कि ब्रह्मांड की शुरुआत कैसे हुई।
बिगबैंग के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और अगले ही क्षण से ये फैलने लगा। हम ये जान चुके हैं कि शुरुआती ब्रह्मांड का विस्तार बेहद तीव्र गति के साथ हुआ। सेकेंड के बेहद सूक्ष्म हिस्से भर में ब्रह्मांड का आकार दोगुना हो गया था। लगातार प्रसार से ब्रह्मांड का आकार बहुत विशाल हो गया और निर्माण-पुर्ननिर्माण प्रक्रिया से आकाशगंगाएं समायोजित होने लगीं। हालांकि ये पूरी तरह से एक जैसा नहीं था, अलग-अलग जगहों पर विभिन्नताएं भी नजर आने लगीं। इन विभिन्नताओं से शुरुआती ब्रह्मांड के तापमान में हल्के अंतर का जन्म हुआ, जिसे हम कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड में देख सकते हैं।
तापमान में इस अंतर का मतलब ये था कि ब्रह्मांड के कुछ इलाकों के विस्तार की गति कुछ कम है। धीमी गति वाले इन इलाकों का विस्तार थम गया और पुर्निनिर्माण की प्रक्रिया से वहां आकाशगंगाओं और सितारों ने जन्म लिया और इस तरह वहां बाद में सौरमंडल भी बनने लगे। उस आदि ब्रह्मांड के वक्त से लेकर अब तक ब्रह्मांड के कोने-कोने से गुरुत्व तरंगें निर्बाध विचरण करती हुई हम तक पहुंच रही हैं। जबकि इसके विपरीत, प्रकाश मुक्त इलेक्ट्रॉन्स कि जरिए कई बार बिखरता रहता है और रोशनी का ये बिखराव तब तक जारी रहता है, जब तक कि तीन लाख साल बाद इलेक्ट्रॉन्स फ्रीज नहीं हो जाते।
कई असाधारण सफलताओं के बावजूद, सारे समाधान नहीं मिले हैं। हमें अब तक इस बात के अच्छे ऑब्जर्वेशनल सबूत नहीं मिले हैं कि धीमे पड़ने की लंबी अवधि के बाद ब्रह्मांड का फैलाव एक बार फिर तेज हो रहा है। ऐसी जानकारियों के बिना, हम ब्रह्मांड के भविष्य के बारे में सुनिश्चित नहीं रह सकते। क्या ये हमेशा के लिए फैलता रहेगा? क्या फूलते जाना या प्रसार प्रकृति का नियम है? या फिर, क्या ब्रह्मांड एक बार फिर से नष्ट हो जाएगा? नए ऑब्जरवेशनल नतीजे और सिद्धांत इन सवालों के जवाब तेजी से तलाश रहे हैं। कॉस्मोलॉजी एक बहुत जोशीला और सक्रियता से भरा विषय है।
हमारा अस्तित्व ब्रह्मांड की इन विभिन्नताओं से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है। अगर शुरुआती ब्रह्मांड पूरी तरह एक जैसा और बिना किसी हलचल वाला होता तो न तो सितारे जन्म लेते और न आकाशगंगाएं बनतीं। ऐसे में जीवन की शुरुआत और उसका विकास कैसे होता? हमारी संपूर्ण मानव जाति और जीवन के ये विभिन्न स्वरूप सब के सब बिगबैंग के बाद ब्रह्मांड की उसी आदि हलचल की ही देन हैं। अब भी हम युगों पुराने इन महान सवालों के जवाब की तलाश में आगे बढ़ रहे हैं और उत्तर के बेहद करीब तक भी जा पहुंचे हैं, कि हम यहां क्यों हैं ? हम कहां से आए हैं ? सवाल ये भी, कि ये सवाल पूछने वाले क्या हम अकेले हैं?

प्रस्तुति संदीप निगम

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

एक प्रेम कहानी...

सन 1994, उम्र लगभग 17 वर्ष। वही किशोरावस्था और युवावस्था की संधि पर खड़ा मै । मध्यमवर्ग के आदर्शों के बिच पला बढ़ा आसमान को छूने की आकांक्षाओं रखने वाला , थोड़ा गुस्सैल , थोड़ा विद्रोही मन।

सपने देखे थे मेडीकल के, अच्छे अंको के बावजूद प्रवेश नही मिल पाया था। निराशा थी पर निराशा से ज्यादा, व्यवस्था पर आक्रोश था। उम्र ही ऐसी थी जो व्यवस्था के अनुसार ढलने की बजाय व्यवस्था को तोड़ने मे विश्वास करती है।
हर असफलता एक नयी शुरूवात को जन्म देती है। मैने भी एक नयी शुरूवात का निश्चय कर लिया। चलो मेडीकल ना सही, विज्ञान मे स्नातक (बी एस सी) कर लेते है। पदवी आने के बाद नागरी सेवा का लक्ष्य निर्धारित किया। अब विषय कौन से चुने जायें ? जवाब आसान था ,भौतिकी और गणित मे तो रूचि बचपन से थी,लेकिन रसायन पसंद नही था। इसलिये इलेक्ट्रानिक्स ले लिया । मेडीकल की असफलता के बाद जीव-शास्त्र का तो प्रश्न ही पैदा नही होता था।
अब हम ठहरे थोडे पढाकू किस्म के जीव, पहले ही दिन से कक्षाओ मे जाना शुरू । बाकी पढाकूओ से सिर्फ अंतर इतना था कि कक्षा मे हम सामने की बेंचो पर ना बैठकर पीछे बैठते थे।
पहले ही दिन जब सभी का परिचय हो रहा था, हमने भी अपना परिचय दिया।“मैं आशीष हुं, मैं ज़िला परिषद स्कूल आमगांव से हुं और मैने 12 वी मे 94 % अंक प्राप्त किये है !”मैने जैसे ही यह कहा सारी की सारी कक्षा मेरी तरफ देखने लगी, जैसे मै चिडियाघर से छूटा हुवा प्राणी हूं। कक्षा मे फुसफुसाहट शूरू हो गयी, पता नही ये फुसफुसाहटें मेरे सरकारी स्कूल से होने की वजह से थी या एक गांव से होने या मेरे अंकों से या इन सभी से !
कॉलेज जीवन मे नया नया प्रवेश था। एक नया रोमांच था, एक नया माहौल था। लोग पढाई से ज्यादा गपशप, कैण्टीन मे समय गुज़ारते थे। कक्षा से गोल मारकर फ़िल्मे देखना और दूसरे दिन उसकी चर्चा करना। आसपास से गुजरती कन्याओ पर सीटी बजाना, टिप्पणियां करना …………
मेरे लिये ये सब कुछ नया था। मैं परिवार के साथ एक गांव मे रहता था। रोज़ सुबह साईकिल से ६ किमी आमगांव जाता था, वहां से २४ किमी रेल से गोंदिया कालेज । शाम को इसका उल्टा। पढने के अलावा और कोई धुन नही थी। घर से कालेज , कालेज से घर और इसी मे मस्त। मस्ती का समय , रेल का सफर मे होता था। २० मिनट के सफर मे खूब मजे होते थे। हम लोग टिकट निरिक्षक को देखकर जान बूझकर अपने डिब्बे से दूसरे डिब्बे मे चले जाते थे, वो हमारे पीछे पीछे आता था। उसे पूरी रेल घुमाने के बाद हम उसे अपनी मासिक टिकिट दिखा देते थे ।
कक्षा मे पढाकू और अनुशासित होने के कारण, थोडे लोकप्रिय हो गये थे, विशेषतः कन्याओ मे। हर काम समय से करने की आदत बचपन से डाल दी गयी थी। स्कूल मे कोई काम समय से ना करने की सबसे ज्यादा सजा मुझे ही मिलती थी। जुमला होता था “एक शिक्षक का पुत्र यदि ऐसा करेगा तो बाकी क्या करेंगे ?” घर मे सजा दुबारा मिलती थी , बोनस मे। एक आदत हो गयी थी । इसी से कालेज मे हमारे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका हमेशा पूर्ण रहती थी । रोज कोई ना कोई मेरे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका नकल करने ले जाता था।
एक दिन एक खूबसूरत कन्या ने हमारी प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। [इस कन्या के पिछे सारी कक्षा के लड़के पडे थे। एक अनार और ४० बीमार।] मैं एक प्रयोग मे व्यस्त था,शराफत से उसे कहा मेरे बैग से निकाल ले । दूसरे दिन वह पुस्तिका वापिस ले आई। हम फिर से व्यस्त, उसे बैग मे रख देने कहा। मेरी जगह कोई और होता तो उसके हाथो मे पुस्तिका देकर(या लेकर) धन्य हो जाता और सारी की सारी कक्षा को कैंटीन मे चाय और समोसो की पार्टी दे देता।
इतने मे अशोक आया,उसने भी वही वाली प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। अशोक हमारी कक्षा मे बी बी सी के नाम से जाना जाता था। यदि आपको कोई खबर कालेज मे फैलानी हो तो आपके पास २ रास्ते है; १. किसी कन्या को बता दो और कह दो कि किसी को ना बताए। २. आप अशोक को बता दो।
हमने उससे भी पुस्तिका बैग से निकाल लेने कहा। और ये मेरी बेवकूफी की शुरूवात थी। अशोक ने पुस्तिका निकाली। पुस्तिका के साथ एक सुगंधित गुलाबी लिफाफा भी निकल आया। अशोक ने लिफाफा देखकर मजमून भांप लिया । पूरी कक्षा मे सभी के सामने ज़ोर ज़ोर से पढना शुरू कर दिया
प्रिय आशीष,……………………… ……………………….. ………..मुझे तुमसे प्यार है, मैं तुम्हारे बिना जी नही सकती………. ………….. ………….. …………………… ………तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी………………मेरा चेहरा एकदम लाल हो गया था, कुछ शर्म से कुछ क्रोध से। कक्षा की सारी कन्याये मेरी ओर देख कर मुस्करा रहीं थी जैसे कह रही हो बडे छुपे रूस्तम निकले। लडके मज़े ले रहे थे। ये सब मेरे लिये अजीब सा था। मैने उस कन्या को ढूंढने की कोशिश की। वो कक्षा मे नही थी। मैने अशोक से पत्र छीना और कक्षा से बाहर आया ।
वो कन्या गैलरी से कालेज के बाहर जा रही थी। मैने उसके पिछे जाकर उसे रोका । गुस्से से मेरा दिमाग काम नही कर रहा था। ‘सटाक’ मैने एक थप्पड उसके चेहरे पर रसीद किया और पत्र फाडकर फेंक दिया । उसके मुंह से निकला“तुम मुझे नही चाहते इसका मतलब ये नही कि तुम मुझे अपनी पसंद के इज़हार से रोक सकते हो।”मै पैर पटकते हुये कॉलेज से निकला और अगली रेल से घर पहुंचा। रास्ते मे दिमाग ठंडा हुआ। मम्मी परेशान ,आज ये जल्दी कैसे आ गया। शाम को पापा ने कहा “कल से अभियांत्रीकी के प्रवेश शुरू हो रहे है, तुम्हारा नाम प्रथम सूची मे है। कल जाकर प्रवेश ले लो।” दूसरे दिन मैने संगणक अभियांत्रीकी मे प्रवेश ले लिया और अपने विज्ञान महाविद्यालय को अलविदा कहा । वह दिन मेरा उस कालेज मे आखिरी दिन था, वह कन्या भी मुझे उस दिन के बाद कभी नही मिली।
आज जब मै पिछे मुड़कर देखता हुं तो एक अफसोस होता है कि काश मैने गुस्से को एक दिन के लिये काबू पा लिया होता। उसके प्यार को स्वीकारना या ना स्वीकारना अलग बात थी, लेकिन थप्पड मारना तो किसी भी तरह से सही नही था। उसने सही कहा था,आप किसी को अपनी पसंद के इज़हार से रोक तो नही सकते।गलती अशोक की थी, उसे पत्र नही पढ़ना चाहिये था। लेकिन मेरा गुस्सा उस लड़की पर निकला। मैं उसे बाद मे प्यार से समझा भी सकता था। नही समझाता तो भी दूसरे दिन तो मैने कालेज ही छोड़ दिया था।काश……घड़ी की सुईया पिछे की जा सकती….. 
द्वारा - Ashish Shrivastava

शुक्रवार, मई 04, 2012

भारत बाबाओं की पैदावार दृष्टि से बेहद उपजाऊ भूमि है


भारत भूमि बाबाओ , स्वामियों और आध्यात्म गुरुओं की पैदावार की दृष्टि से बेहज ही उपजाऊ है और यहाँ का वातावरण इनके फलने फूलने के लिए पूर्णतया अनुकूल | तभी तो हमारे यहाँ न्यूटन , आइंस्टीन ,गैलीलियो , डार्विन भले ही ना होते हो सत्य साईं ,नित्यानद ,निर्मल जरुर होते है | बाबा होना सबसे अच्छा धंधा है इण्डिया में | कितने ही आध्यात्मिक गुरु और स्वयंभू देवता आये और चले गए | कोई यौन शोषण में पकड़ा गया तो किसी के यहाँ करोडो की संम्पति मिली पर जनता की अपार श्रधा इन बाबाओ पर बनी रही |श्रद्धा, आस्था, निष्ठा, आदरभाव कम होने के उलट बढ़ता ही रहा | जड़ता ,अज्ञानता ,नादानी ,नासमझी और बेवकूफी की इससे बड़ी मिशाल और क्या होगी ? इससे बड़ी ढीटताई भला और क्या ?

इन दिनों निर्मल बाबा का दौर चल रहा है |दिल्ली ,मुंबई जैसे बड़े शहरो में निर्मल दरबार लगाए जा रहे ,जिन्हें समागमकहा जाता है |बताते चले कि इन समागमो में शामिल होने वाले प्रत्येक व्यक्ति से २००० रुपये वसूल किये जाते है| तमाम संचार माध्यमो द्वारा निर्मल कृपा घरों तक पहुचाई जा रही है |कृपाओ की इस होम डिलेवरी में लोकतंत्र का चौथा खम्भा भी शरीक है |निर्मल द्वारा अपनी आर्थिक कृपा इन चेनलो पर बरसाने का फायदा बाबा को यह हुआ कि बाबा की प्रसिद्धि में कई गुना इजाफा हुआ है | उनकी आधिकारिक वेबसाईट निर्मल बाबा डॉट कॉम पर दर्ज ब्यूरे देखने से पता चलता है कि अगस्त माह तक उनके सारे समागम हाउसफुल है |बाबा के ये हाउस फुल समागम जनता को सरेआम फुल फूल बना रहे है |

यूँ सरेआम खुल्लमखुल्ला फूल बनाने और आर्थिक मानसिक लूट करने का लाइसेस आपको अध्यात्म , चमत्कार और भगवान के नाम पर मिल ही जाता है |मामला जब आस्थाओं का बना दिया जाता है तो उसमे दखल अंदाजी लगभग नामुमकिन सी हो जाती है | निर्मल बाबा के सन्दर्भ में आप्टन का ये कथन कि जनता को अध्यात्म में विश्वास दिला दीजिए और उसके पास जो कुछ भी है वोह लूट लीजिए ,वह इसमें आपकी हस्ते हस्ते मदद भी करेगी ’’ अक्षरशः ठीक बैठता है |

निमल बाबा खुद में किसी अलौकिक शक्ति होने का दावा करते है और इसी शक्ति के दम पर वे समस्याओं का निराकरण भी पेश करते है |निराकण भी ऐसा कि अच्छे अच्छो के सर चकरा जाए |

दिल्ली में समागम के एक दृश्य पर गौर फरमाईये :-
भक्त : बाबा प्रणाम !!!
बाबा : कभी गर्म सूट सिलवाना था ??? ( बाबा प्रणाम करने की बजाय सीधे एक सवाल भक्त की तरफ उछाल देते है )
भक्त : जैकेट एक लेना है (काफी देर सोचने के बात भक्त कहता है )
बाबा : जैकेट लेना है ?? सूट नहीं लेना ??? (बाबा थोडा डगमगा जाते है क्युकी बाबा ने तो सूट की कहा था और भक्त जेकेट का नाम लेता है )
भक्त : सूट तो शादी में सिलवाया था | (बस अब क्या था भक्त ने आखिर सूट का नाम ले ही लिया ; बाबा हलकी मुस्कान पास करते है )
बाबा : हू.... खरीद कर कब सिलवाया ?
भक्त : बाबा वोह खरीद कर ही सिलवाया था |
बाबा : कहा से सिलवाया था ? (भक्त के ये कहने पर की खरीद कर ही सिलवाया था , बाबा अपनी बात बड़ी चालाखी से घुमा देते है )
भक्त : बगल की दूकान से सिलवाया था |
बाबा : बस यही गलती कर दी | तभी कृपा रुकी हुई है | अगली बार किसी बड़ी दूकान से सिलवाना कृपा आनी शुरू हो जायेगी |

अब बताईये भक्त द्वारा अपनी समस्या का जिक्र किये बिना ही बाबा द्वारा हल बता दिया गया | सूट पहनना किसी समस्या का हल भी है सुनकर ही हंसी आती है |ऐसे ही कभी किसी को कहा जाता है कि हरी चटनी खाओ कृपा आएगी , तो किसी को शर्ट के बटन धीरे धीरे लगाने को |और ये सब इसलिए की आपकी समस्याए हल हो सके| क्या ये समस्याओं को हल करने के नाम पर सीधे-सीधे उन्हें और उलझाने का काम नहीं है ? हमारी जनता कब समझेगी इसे ? सही कहू तो वोह समझना ही नहीं चाहती | उसे अपनी समस्याओं के हल के ऐसे ही शोर्टकट चाहिए | यहाँ कर्म कौन करना चाहता है ? “ हमारे यहाँ आये दिन दोहराए जाने वाले जुमले कर्म करो फल की चिंता मत करो को परिवर्तित करके फल की चिंता करो कर्म मत करो कर दिया जाना चाहिए | किसी बाबा से बड़ी पाखंडी तो ये जनता है| जो पाखण्ड करती है पढ़े लिखे होने का ,पाखंड करती है खुद के सभ्य होने का |

हालाकि कई प्रगति शील विचारक और सामाजिक चिंतक बाबा पर सवालिया निशाँ लगा रहे है और बाबा के इस पाखण्ड को रोकने के लिए प्रयत्नशील है पर ये भी नहीं है कि आध्यात्म , पाखण्ड , लूट का ये सिलसिला निर्मल बाबा के अंत के साथ ही खत्म हो जाएगा | इस बाबा के जाने के बाद कोई दूसरा आएगा ,दूसरे के बाद तीसरा ..... कभी कभी तो लगता है यहाँ की जनता केवल ठगे जाने के लिए ही पैदा होती है | आखिर ये सिलसला कब खत्म होगा ...???? इस तरह के बाबाओ को पैदा करना और उन्हें कायम रखना मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था की जरुरत है | चाहे श्रवण कुमार तीर्थ यात्रा योजना हो या निर्मल समागम ....अंततः सबका एक ही उदेश्य है वर्ग संघर्ष को कमजोर बनाना और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित इस व्यवस्था को बरकरार रखना | इसी कारण वे सभी सत्ता पूंजीवादी पक्ष ,संस्थाए जो सत्ताधारी वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है ऐसी ही भावनाओं को संबल बना रही है और इनके प्रचार को प्रोत्साहन दे रही है| इसलिए हमें किसी बाबा को भगाने से ज्यादा ध्यान जनता के चेतना स्तर को ऊँचा करने में लगाना होगा | राजनैतिक क्रान्ति से पहले वैचारिक संघर्ष जरुरी है और एक बार हम ऐसा करने में सफल होते है तब चमत्कार कोई निर्मल बाबा नहीं बल्कि मेहनतकश आवाम करेगी |