शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2011

मानव मस्तिष्क के विषय में कुछ रोचक तथ्य


मानव मस्तिष्क की संरचना अत्यन्त जटिल है और आज मनुष्य इसे बहुत ही कम समझ पाया है। प्रस्तुत है मानव मस्तिष्क के विषय में कुछ रोचक तथ्य

मस्तिष्क को दर्द का अनुभव नहीं होता - मस्तिष्क ही दर्द के संकेतों को समझ कर शरीर के अन्य भागों को पीड़ा का अनुभव करवाता है किन्तु चमत्कारिक तथ्य यह है कि वह स्वयं कभी पीड़ा का अनुभव नहीं करता।
मस्तिष्क को ऑक्सीजन की सबसे अधिक आवश्यकता होती है - यद्यपि मस्तिष्क का भार पूरे शरीर के भार का लगभग दो प्रतिशत ही होता है, उसे ऑक्सीजन तथा कैलोरीज की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। साँस के द्वारा खींचे गए ऑक्सीजन का 20 प्रतिशत हिस्सा केवल मस्तिष्क के प्रयोग में आता है।
मस्तिष्क का 80% पानी होता है - हमें लगता है कि मस्तिष्क अपेक्षाकृत ठोस होता है, किन्तु ऐसा नहीं है। मस्तिष्क का 80% भाग पानी होता है।
मस्तिष्क दिन की अपेक्षा रात्रि को अधिक सक्रिय रहता है - चूँकि दिन भर हमारा शरीर सक्रिय रहता है और रात को सो जाने पर वह अपेक्षाकृत कम क्रियाशील रहता है, हम समझते हैं कि मस्तिष्क दिन में रात्रि की अपेक्षा अधिक सक्रिय रहता होगा जबकि वास्तविकता यह है कि मस्तिष्क दिन की अपेक्षा रात्रि में अधिक सक्रिय रहता है।
मस्तिष्क को कार्य करने के लिए मात्र 10 वाट विद्युत शक्ति की आवश्यकता होती है - जटिल से जटिल कार्य करने के लिए भी मस्तिष्क को अधिकतम 10 वाट विद्युत शक्ति की आवश्यकता होती है।
अधिक I.Q. वाले व्यक्ति को सपने भी अधिक दिखाई देते हैं - जी हाँ आपका I.Q. जितना अधिक होगा अर्थात् आप जितने अधिक कुशाग्र बुद्धि के स्वामी होंगे उतने ही अधिक आपको सपने दिखाई देंगे। यह बात अलग है कि वे सपने आपको याद न रहें।
तरुणावस्था में मस्तिष्क का आकार बदल जाता है - तरुण अवस्था में ही मनुष्य सर्वाधिक प्रसन्न, कल्पनाशील और आकांक्षायुक्त होता है और यही वह अवस्था है जबकि उसके मस्तिष्क का आकार भी बदल जाता है। यहाँ तक कि इस अवस्था में वह जोखिम वाले कार्य करने पर भी उतारू रहता है।
मस्तिष्क में प्रत्येक वस्तु (सूचना) संग्रहित होते जाता है - तकनीकी रूप से मस्तिष्क के पास अनुभव, अवलोकन, पठन, श्रवण आदि प्रत्येक वस्तु (सूचना) को संग्रह करने की क्षमता होती है। जन्म के बाद से प्रत्येक वस्तु उसमें संग्रहित होते जाती है, कुछ भी नहीं छूटता। यह अलग बात है कि मनुष्य में अपने ही मस्तिष्क में सग्रहित किसी अनेक वस्तुओं (सूचनाओं) तक वापस पहुँचने याने कि अनेक घटनाओं को स्मरण रख पाने की क्षमता नहीं होती।

हम “भगवान” बनाते हैं


हम भगवानबनाते हैं

मित्रो अभी तक आप येही सुनते और समझाते आये है के भगवान्ने हम सबको बनाया है लेकिन शायद आपकी इस भावना को थोडा झटका लग जाए ये जानकर केभगवान्ने हमें नहीं बल्कि हमनेभगवान्को बनाया है. भगवान्शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ये तो शोध का विषय है परन्तु वैदिक काल तक न तो ये शब्द चलन में था न ही मंदिर अस्तित्व में आये थे. हमारे पूर्वज केवल प्राकृतिक शक्तियों की ही उपासना किया करते थे. ये वही भौतिक शक्तिया थी जिनसे हम अस्तित्व में आये जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश. अग्नि के प्रतीक सूर्य पूजा प्रमुख तौर पर की जाती थी.
जब सामाजिक ढांचा खड़ा हुआ और कालांतर में लोगों को एक जगह एकत्रित करने के प्रयास किये जाने लगे तो सवाल ये खड़ा हो गया की ऐसा कैसे किया जाए? किसी एक ऐसी चीज़ की तलाश जो लोगों को एक जगह इकठे होने की प्रेरणा दे और लोग स्वयं ही वहां आये ताकि उन्हें समाज से सम्बंधित विविध विषयों पर जानकारी दी जा सके और विचार विमर्श किया जा सके. तब कल्पना शक्ति का प्रयोग कर कुछ देवी देवताओं की रचना की गयी. सभी भौतिक शक्तियों को स्थूल देवी देवताओं में परिवर्तित कर दिया गया. जब अदृश्य शक्तियां लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई तो एक दूसरा तरीका उन शक्तियों की मूर्ति बना कर किया गया. अब काम बन गया. लोगों में उनके प्रति श्रधा और विश्वास जगाया गया. उन्हें समाज में एक विशेष स्थान दिया गया. ऐसे स्थानों के रख रखाव के लिए लोगों में दान का विचार डाला गया और उसे पाप पुण्य से जोड़ दिया गया. अब सब कुछ ठीक हो चला था. काफी लोगों की आजीविका का साधन बन चूका था.
परन्तु अब भी एक समस्या आड़े आ रही थी. मूर्ति रूप अदृश्य शक्तियां लोगों से वार्तालाप नहीं कर सकती थी. लोगों को अब कुछ अतिरिक्त चाहिए था तब मंदिरों में पुजारी उत्पन्न किया गया जो देवी देवताओं के सन्देश लोगों को दे सके और एक माध्यम का काम कर सके. अब लोगों को ज्यादा आनद आने लगा. पुजारी उपदेशों को विभिन्न प्रकार से लोगों में बाटने लगे. आकर्षण बढ़ने के लिए मंदिरों में संगीत का प्रयोग किया जाने लगा. भजनों और गीतों के माध्यम से दिव्या सन्देश दिए जाने लगे. अब दिव्या सन्देश देने वाले की समाज में अति विशेष जगह बन चुकी थी. वो धर्म गुरु के नाम से जाने जाने लगे. उनमे से भी कुछ अति विशिष्ट धर्म गुरुओं को तभी भगवान्नाम से संबोधित किया जाने लगा.
गुजरते समय के साथ ऐसे भगवानोको भावी पीढ़ियों को स्थानांतरित कर दिया गया. भगवान्बनाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहा गया. इसके बाद दौर शुरू हुआ वीर साहसी और धनवान लोगों को भगवान्बनाने का जिस क्रम में राम, कृष्ण, महावीर और भी बहुत से नाम जुड़ते चले गए. ये सभी सामाजिक दृष्टि से ऊँचे थे. अधिकतर राजपरिवार से थे जो राजा या राजकुमार थे. उन्हेंभगवान्उपाधि से सुशोभित किया गया ताकि समाज में उनकी ऊंची हसियत का आम आदमीं को लाभ मिल सके. उनके चरित्र चित्रण किये गए. गीत नाटको, संगीत सभाओ के द्वारा उन्हें पूरे समाज में प्रचारित किया गया.
अगर हम आधुनिक समय की बात करें तो ये परंपरा अभी भी जोर शोर से जारी है. लोगों को भगवान्बनाने का क्रम रुका नहीं है. आये दिन हम बहुत सेभगवानोको देखते, सुनते और समझते है लेकिन शायद ही हम कभी इस प्रथा की पृष्ठभूमि में जाने का प्रयास करते है. इंसानों द्वारा इंसान को भगवान्बनाने की होड़ में असली भगवान्या ईश्वरतो कही हो ही गया है. मंदिरों की महत्ता उनके द्वारा इकठे किये गए खजानों से होती है के अमुक मंदिर सबसे बड़ा है कयोंकि वहां सबसे ज्यादा चढ़ावा आता है. उस मंदिर का देवी देवता का नाम काफी बाद में आता है. ये मंदिरों का सबसे निम्नतर स्तर है. अब मंदिर आध्यात्म की बाते नहीं करते वहां के भगवान् कुछ जादुई करतब सीखकर उन्हें चमत्कार कह कर लोगों को प्रभावित करते है और लोग होते भी है. बड़े बड़े मंदिर, आश्रम जो तथाकथित भगवानोने अपने भक्तों के लिए बनाये है उनमे जाकर भक्त गद गद होते है. भौतिक सुख में आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते है.
हे लोगो, हे इंसानों, विवेक का प्रयोग करो. अब भी समय है चेत जाओ, जाग जाओ, “भगवान्बनाना बंद करो और ईश्वरके साक्षात्कार का प्रयास करो इसी में तुम्हारा कल्याण है. बहुत भगवान्बन चुके क्या अभी और चाहिए?