मंगलवार, जुलाई 10, 2012

एक प्रेम कहानी...

सन 1994, उम्र लगभग 17 वर्ष। वही किशोरावस्था और युवावस्था की संधि पर खड़ा मै । मध्यमवर्ग के आदर्शों के बिच पला बढ़ा आसमान को छूने की आकांक्षाओं रखने वाला , थोड़ा गुस्सैल , थोड़ा विद्रोही मन।

सपने देखे थे मेडीकल के, अच्छे अंको के बावजूद प्रवेश नही मिल पाया था। निराशा थी पर निराशा से ज्यादा, व्यवस्था पर आक्रोश था। उम्र ही ऐसी थी जो व्यवस्था के अनुसार ढलने की बजाय व्यवस्था को तोड़ने मे विश्वास करती है।
हर असफलता एक नयी शुरूवात को जन्म देती है। मैने भी एक नयी शुरूवात का निश्चय कर लिया। चलो मेडीकल ना सही, विज्ञान मे स्नातक (बी एस सी) कर लेते है। पदवी आने के बाद नागरी सेवा का लक्ष्य निर्धारित किया। अब विषय कौन से चुने जायें ? जवाब आसान था ,भौतिकी और गणित मे तो रूचि बचपन से थी,लेकिन रसायन पसंद नही था। इसलिये इलेक्ट्रानिक्स ले लिया । मेडीकल की असफलता के बाद जीव-शास्त्र का तो प्रश्न ही पैदा नही होता था।
अब हम ठहरे थोडे पढाकू किस्म के जीव, पहले ही दिन से कक्षाओ मे जाना शुरू । बाकी पढाकूओ से सिर्फ अंतर इतना था कि कक्षा मे हम सामने की बेंचो पर ना बैठकर पीछे बैठते थे।
पहले ही दिन जब सभी का परिचय हो रहा था, हमने भी अपना परिचय दिया।“मैं आशीष हुं, मैं ज़िला परिषद स्कूल आमगांव से हुं और मैने 12 वी मे 94 % अंक प्राप्त किये है !”मैने जैसे ही यह कहा सारी की सारी कक्षा मेरी तरफ देखने लगी, जैसे मै चिडियाघर से छूटा हुवा प्राणी हूं। कक्षा मे फुसफुसाहट शूरू हो गयी, पता नही ये फुसफुसाहटें मेरे सरकारी स्कूल से होने की वजह से थी या एक गांव से होने या मेरे अंकों से या इन सभी से !
कॉलेज जीवन मे नया नया प्रवेश था। एक नया रोमांच था, एक नया माहौल था। लोग पढाई से ज्यादा गपशप, कैण्टीन मे समय गुज़ारते थे। कक्षा से गोल मारकर फ़िल्मे देखना और दूसरे दिन उसकी चर्चा करना। आसपास से गुजरती कन्याओ पर सीटी बजाना, टिप्पणियां करना …………
मेरे लिये ये सब कुछ नया था। मैं परिवार के साथ एक गांव मे रहता था। रोज़ सुबह साईकिल से ६ किमी आमगांव जाता था, वहां से २४ किमी रेल से गोंदिया कालेज । शाम को इसका उल्टा। पढने के अलावा और कोई धुन नही थी। घर से कालेज , कालेज से घर और इसी मे मस्त। मस्ती का समय , रेल का सफर मे होता था। २० मिनट के सफर मे खूब मजे होते थे। हम लोग टिकट निरिक्षक को देखकर जान बूझकर अपने डिब्बे से दूसरे डिब्बे मे चले जाते थे, वो हमारे पीछे पीछे आता था। उसे पूरी रेल घुमाने के बाद हम उसे अपनी मासिक टिकिट दिखा देते थे ।
कक्षा मे पढाकू और अनुशासित होने के कारण, थोडे लोकप्रिय हो गये थे, विशेषतः कन्याओ मे। हर काम समय से करने की आदत बचपन से डाल दी गयी थी। स्कूल मे कोई काम समय से ना करने की सबसे ज्यादा सजा मुझे ही मिलती थी। जुमला होता था “एक शिक्षक का पुत्र यदि ऐसा करेगा तो बाकी क्या करेंगे ?” घर मे सजा दुबारा मिलती थी , बोनस मे। एक आदत हो गयी थी । इसी से कालेज मे हमारे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका हमेशा पूर्ण रहती थी । रोज कोई ना कोई मेरे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका नकल करने ले जाता था।
एक दिन एक खूबसूरत कन्या ने हमारी प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। [इस कन्या के पिछे सारी कक्षा के लड़के पडे थे। एक अनार और ४० बीमार।] मैं एक प्रयोग मे व्यस्त था,शराफत से उसे कहा मेरे बैग से निकाल ले । दूसरे दिन वह पुस्तिका वापिस ले आई। हम फिर से व्यस्त, उसे बैग मे रख देने कहा। मेरी जगह कोई और होता तो उसके हाथो मे पुस्तिका देकर(या लेकर) धन्य हो जाता और सारी की सारी कक्षा को कैंटीन मे चाय और समोसो की पार्टी दे देता।
इतने मे अशोक आया,उसने भी वही वाली प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। अशोक हमारी कक्षा मे बी बी सी के नाम से जाना जाता था। यदि आपको कोई खबर कालेज मे फैलानी हो तो आपके पास २ रास्ते है; १. किसी कन्या को बता दो और कह दो कि किसी को ना बताए। २. आप अशोक को बता दो।
हमने उससे भी पुस्तिका बैग से निकाल लेने कहा। और ये मेरी बेवकूफी की शुरूवात थी। अशोक ने पुस्तिका निकाली। पुस्तिका के साथ एक सुगंधित गुलाबी लिफाफा भी निकल आया। अशोक ने लिफाफा देखकर मजमून भांप लिया । पूरी कक्षा मे सभी के सामने ज़ोर ज़ोर से पढना शुरू कर दिया
प्रिय आशीष,……………………… ……………………….. ………..मुझे तुमसे प्यार है, मैं तुम्हारे बिना जी नही सकती………. ………….. ………….. …………………… ………तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी………………मेरा चेहरा एकदम लाल हो गया था, कुछ शर्म से कुछ क्रोध से। कक्षा की सारी कन्याये मेरी ओर देख कर मुस्करा रहीं थी जैसे कह रही हो बडे छुपे रूस्तम निकले। लडके मज़े ले रहे थे। ये सब मेरे लिये अजीब सा था। मैने उस कन्या को ढूंढने की कोशिश की। वो कक्षा मे नही थी। मैने अशोक से पत्र छीना और कक्षा से बाहर आया ।
वो कन्या गैलरी से कालेज के बाहर जा रही थी। मैने उसके पिछे जाकर उसे रोका । गुस्से से मेरा दिमाग काम नही कर रहा था। ‘सटाक’ मैने एक थप्पड उसके चेहरे पर रसीद किया और पत्र फाडकर फेंक दिया । उसके मुंह से निकला“तुम मुझे नही चाहते इसका मतलब ये नही कि तुम मुझे अपनी पसंद के इज़हार से रोक सकते हो।”मै पैर पटकते हुये कॉलेज से निकला और अगली रेल से घर पहुंचा। रास्ते मे दिमाग ठंडा हुआ। मम्मी परेशान ,आज ये जल्दी कैसे आ गया। शाम को पापा ने कहा “कल से अभियांत्रीकी के प्रवेश शुरू हो रहे है, तुम्हारा नाम प्रथम सूची मे है। कल जाकर प्रवेश ले लो।” दूसरे दिन मैने संगणक अभियांत्रीकी मे प्रवेश ले लिया और अपने विज्ञान महाविद्यालय को अलविदा कहा । वह दिन मेरा उस कालेज मे आखिरी दिन था, वह कन्या भी मुझे उस दिन के बाद कभी नही मिली।
आज जब मै पिछे मुड़कर देखता हुं तो एक अफसोस होता है कि काश मैने गुस्से को एक दिन के लिये काबू पा लिया होता। उसके प्यार को स्वीकारना या ना स्वीकारना अलग बात थी, लेकिन थप्पड मारना तो किसी भी तरह से सही नही था। उसने सही कहा था,आप किसी को अपनी पसंद के इज़हार से रोक तो नही सकते।गलती अशोक की थी, उसे पत्र नही पढ़ना चाहिये था। लेकिन मेरा गुस्सा उस लड़की पर निकला। मैं उसे बाद मे प्यार से समझा भी सकता था। नही समझाता तो भी दूसरे दिन तो मैने कालेज ही छोड़ दिया था।काश……घड़ी की सुईया पिछे की जा सकती….. 
द्वारा - Ashish Shrivastava