हम “भगवान” बनाते
हैं
मित्रो अभी तक आप येही सुनते और समझाते आये
है के “भगवान्” ने हम सबको बनाया है लेकिन शायद आपकी इस भावना को थोडा झटका लग जाए ये जानकर के “भगवान्” ने हमें नहीं
बल्कि हमने “भगवान्” को बनाया है.
“भगवान्” शब्द की उत्पत्ति कब और कैसे हुई ये तो शोध का विषय
है परन्तु वैदिक काल तक न तो ये शब्द चलन में
था न ही मंदिर अस्तित्व में आये थे. हमारे पूर्वज केवल प्राकृतिक शक्तियों की ही उपासना किया करते थे. ये वही भौतिक शक्तिया थी जिनसे हम अस्तित्व में आये जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और
आकाश. अग्नि के प्रतीक सूर्य पूजा प्रमुख तौर पर की जाती
थी.
जब सामाजिक ढांचा खड़ा हुआ और कालांतर में लोगों को एक जगह एकत्रित करने के प्रयास किये जाने लगे तो सवाल ये खड़ा हो गया की
ऐसा कैसे किया जाए? किसी एक ऐसी चीज़ की तलाश जो
लोगों को एक जगह इकठे होने की प्रेरणा दे और लोग स्वयं ही
वहां आये ताकि उन्हें समाज से सम्बंधित विविध विषयों पर जानकारी दी
जा सके और विचार विमर्श किया जा सके. तब कल्पना शक्ति का प्रयोग कर कुछ देवी देवताओं की रचना की गयी. सभी भौतिक
शक्तियों को स्थूल देवी देवताओं में परिवर्तित कर दिया
गया. जब अदृश्य शक्तियां लोगों को आकर्षित नहीं कर पाई
तो एक दूसरा तरीका उन शक्तियों की मूर्ति बना कर किया गया. अब काम बन गया. लोगों में उनके प्रति श्रधा और विश्वास
जगाया गया. उन्हें समाज में एक विशेष
स्थान दिया गया. ऐसे स्थानों के रख रखाव के लिए लोगों में दान का विचार डाला गया और उसे पाप पुण्य से जोड़ दिया
गया. अब सब कुछ ठीक हो चला था.
काफी लोगों की आजीविका का साधन बन चूका था.
परन्तु अब भी एक समस्या आड़े आ रही थी. मूर्ति रूप अदृश्य शक्तियां लोगों से वार्तालाप नहीं कर सकती थी. लोगों को अब कुछ
अतिरिक्त चाहिए था तब मंदिरों में पुजारी उत्पन्न
किया गया जो देवी देवताओं के सन्देश लोगों को दे सके और एक
माध्यम का काम कर सके. अब लोगों को ज्यादा आनद आने लगा. पुजारी
उपदेशों को विभिन्न प्रकार से लोगों में बाटने लगे. आकर्षण बढ़ने के लिए मंदिरों में संगीत का प्रयोग किया जाने लगा.
भजनों और गीतों के माध्यम से दिव्या
सन्देश दिए जाने लगे. अब दिव्या सन्देश देने वाले की समाज में अति विशेष जगह बन चुकी थी. वो धर्म गुरु के नाम से
जाने जाने लगे. उनमे से भी कुछ अति
विशिष्ट धर्म गुरुओं को तभी “भगवान्” नाम से संबोधित किया जाने लगा.
गुजरते समय के साथ ऐसे “भगवानो” को भावी
पीढ़ियों को स्थानांतरित कर दिया गया. “भगवान्” बनाने की
प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहा गया. इसके बाद दौर शुरू हुआ
वीर साहसी और धनवान लोगों को “भगवान्” बनाने का जिस
क्रम में राम, कृष्ण, महावीर और भी
बहुत से नाम जुड़ते चले गए. ये सभी सामाजिक दृष्टि से
ऊँचे थे. अधिकतर राजपरिवार से थे जो राजा या राजकुमार थे. उन्हें “भगवान्” उपाधि से
सुशोभित किया गया ताकि समाज में उनकी ऊंची हसियत का आम आदमीं को लाभ
मिल सके. उनके चरित्र चित्रण किये गए. गीत नाटको, संगीत सभाओ के द्वारा
उन्हें पूरे समाज में प्रचारित किया गया.
अगर हम आधुनिक समय की बात करें तो ये परंपरा अभी भी जोर शोर से जारी है. लोगों को “भगवान्” बनाने का
क्रम रुका नहीं है. आये दिन हम बहुत से “भगवानो” को देखते, सुनते और
समझते है लेकिन शायद ही हम कभी इस प्रथा की पृष्ठभूमि
में जाने का प्रयास करते है. इंसानों द्वारा इंसान को “भगवान्” बनाने की
होड़ में असली “भगवान्” या “ईश्वर” तो कही हो ही
गया है. मंदिरों की महत्ता उनके द्वारा इकठे किये गए खजानों से होती
है के अमुक मंदिर सबसे बड़ा है कयोंकि वहां सबसे
ज्यादा चढ़ावा आता है. उस मंदिर का देवी देवता का नाम काफी बाद में आता है. ये मंदिरों का सबसे
निम्नतर स्तर है. अब मंदिर आध्यात्म की बाते नहीं
करते वहां के भगवान् कुछ जादुई करतब सीखकर उन्हें
चमत्कार कह कर लोगों को प्रभावित करते है और लोग होते भी है. बड़े बड़े मंदिर, आश्रम जो
तथाकथित “भगवानो” ने अपने
भक्तों के लिए बनाये है उनमे जाकर भक्त गद गद होते है.
भौतिक सुख में आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते है.
हे लोगो, हे इंसानों, विवेक का
प्रयोग करो. अब भी समय है चेत जाओ, जाग जाओ, “भगवान्” बनाना बंद
करो और “ईश्वर” के
साक्षात्कार का प्रयास करो इसी में तुम्हारा
कल्याण है. बहुत “भगवान्” बन चुके क्या
अभी और चाहिए?